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बेरोजगारी और बदलती सामाजिक सोच से पहाड़ों में बढ़ रही है 'कुंवारों की फौज'

  • लेखक की तस्वीर: ब्यूरो
    ब्यूरो
  • 5 जून
  • 2 मिनट पठन

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में एक गंभीर सामाजिक बदलाव तेजी से उभर रहा है—तीस पार के युवा अब भी विवाह से वंचित हैं। बेरोजगारी, अस्थिर निजी नौकरियां और बदलती वैवाहिक प्राथमिकताएं इस स्थिति की बड़ी वजह बनती जा रही हैं। पारंपरिक जीवनशैली और सीमित रोजगार विकल्पों के चलते अब पहाड़ों के युवाओं के लिए विवाह करवाना माता-पिता के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है।

पहाड़ों में पहले सेना में भर्ती युवाओं के लिए एक बड़ा विकल्प था, लेकिन ‘अग्निवीर योजना’ आने के बाद इसमें रुचि घटी है। युवाओं को मजबूरन शहरों की ओर रुख करना पड़ता है, लेकिन वहां भी उन्हें वह आर्थिक स्थिरता नहीं मिलती जो विवाह के लिए आवश्यक मानी जाती है। वहीं, गांव में रहकर खेती या छोटा व्यवसाय करने वाले युवाओं को भी विवाह के लिए स्वीकार नहीं किया जा रहा।

बदलती सोच बन रही बाधा

आज की शहरी सोच वाली लड़कियां सरकारी नौकरी या ऊंचे पैकेज वाली प्राइवेट नौकरी को प्राथमिकता देती हैं। पहाड़ों के मेहनती और स्वावलंबी युवाओं को सिर्फ इस वजह से नजरअंदाज किया जा रहा है कि उनके पास 'शहर' और 'पैकेज' नहीं है। इस मानसिकता के कारण युवा मानसिक तनाव, अकेलेपन और डिप्रेशन की ओर बढ़ने लगे हैं।

जब रिश्ते भी बन जाएं इंटरव्यू

केस 1: नवीन सिंह (32), रानीखेतबीए करने के बाद खेती को ही जीवन का आधार बनाया। कहते हैं, "रिश्तों की बात आते ही लोग पूछते हैं- नौकरी कहां है, सैलरी कितनी है। जैसे मैं जॉब इंटरव्यू देने आया हूं।"

केस 2: सुनील नेगी (32), हल्द्वानी से गांव वापसीमां की बीमारी के कारण हल्द्वानी की नौकरी छोड़कर गांव लौटे, पर शादी की बात पर तिरस्कार मिला- “गांव में रहकर क्या करोगे?”

केस 3: दीपक टम्टा (34), भिकियासैंणअभी तक कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली, रिश्ते आते हैं लेकिन टिकते नहीं। कहते हैं, "अब तो लगता है अकेले रहना ही ठीक है।"

केस 4: नरेंद्र सिंह रावत (33), चौखुटियाआईटीआई करने के बाद गांव में बिजली का छोटा ठेका चलाते हैं। कहते हैं, "मेरे पास स्किल और सम्मान दोनों हैं, पर रिश्ता तय नहीं हो पाता क्योंकि मैं शहर में नहीं रहता।"

केस 5: अजय बोरा (31), द्वाराहाटपोस्ट ग्रेजुएट हैं, बैंक की परीक्षा दी थी पर चयन नहीं हुआ। अब घर पर बागवानी और डेयरी का काम करते हैं। कहते हैं, “हम दो जंग लड़ रहे हैं, एक समाज से और दूसरी अपने आप से।”

विशेषज्ञों की राय

पारस उपाध्याय, चिलियानौला:"अब रिश्ते भी प्रतियोगिता बन चुके हैं। जो हमें हमारी सादगी और संघर्ष में स्वीकारे, वही सच्चा साथी हो सकता है।"

दिनेश चंद्र, मजखाली:"यह एक सामाजिक परिवर्तन है। सिर्फ युवाओं को नहीं, पूरे समाज की सोच को बदलने की जरूरत है।"

उमाशंकर पंत, पुजारी, नीलकंठ महादेव मंदिर, रानीखेत:"पहले रिश्ते में गुण और संस्कार देखे जाते थे, अब केवल पैसा और नौकरी देखी जाती है। यह बदलाव समाज को अंदर से खोखला कर रहा है।"

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